जुर्म आदम ने किया और नस्ल-ए-आदम को सज़ा
काटता हूँ ज़िंदगी भर मैं ने जो बोया नहीं
Ahmad Faraz
Gulzar
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Mir Taqi Mir
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चाँद चढ़ता देखना बेहद समुंदर पर 'मुनीर'
मोहब्बत अब नहीं होगी ये कुछ दिन ब'अद में होगी
नील-ए-फ़लक के इस्म में नक़्श-ए-असीर के सबब
महफ़िल-आरा थे मगर फिर कम-नुमा होते गए
शब-ख़ूँ
आमद-ए-शब
उगा सब्ज़ा दर-ओ-दीवार पर आहिस्ता आहिस्ता
मेरी सारी ज़िंदगी को बे-समर उस ने किया
कोई हद नहीं है कमाल की
नींद का हल्का गुलाबी सा ख़ुमार आँखों में था
वतन में वापसी
कोई दाग़ है मिरे नाम पर