कल मैं ने उस को देखा तो देखा नहीं गया
मुझ से बिछड़ के वो भी बहुत ग़म से चूर था
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मकाँ है क़ब्र जिसे लोग ख़ुद बनाते हैं
ग़ैर से नफ़अत जो पा ली ख़र्च ख़ुद पर हो गई
इक आलम-ए-हिज्राँ ही अब हम को पसंद आया
जो मुझे भुला देंगे मैं उन्हें भुला दूँगा
चाँद चढ़ता देखना बेहद समुंदर पर 'मुनीर'
है शक्ल तेरी गुलाब जैसी
तूफ़ानी रात में इंतिज़ार
पागल-पन
हँसी छुपा भी गया और नज़र मिला भी गया
मुद्दत के ब'अद आज उसे देख कर 'मुनीर'
कटी है जिस के ख़यालों में उम्र अपनी 'मुनीर'
एक वारिस हमेशा होता है