डर के किसी से छुप जाता है जैसे साँप ख़ज़ाने में
ज़र के ज़ोर से ज़िंदा हैं सब ख़ाक के इस वीराने में
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वो जिस को मैं समझता रहा कामयाब दिन
आँखों में उड़ रही है लुटी महफ़िलों की धूल
शहर की गलियों में गहरी तीरगी गिर्यां रही
बे-हक़ीक़त दूरियों की दास्ताँ होती गई
एक नगर के नक़्श भुला दूँ एक नगर ईजाद करूँ
सहन को चमका गई बेलों को गीला कर गई
हूँ मकाँ में बंद जैसे इम्तिहाँ में आदमी
बस एक माह-ए-जुनूँ-ख़ेज़ की ज़िया के सिवा
अच्छी मिसाल बनतीं ज़ाहिर अगर वो होतीं
ख़ुमार-ए-शब में उसे मैं सलाम कर बैठा
बैठ कर मैं लिख गया हूँ दर्द-ए-दिल का माजरा
दश्त-ए-बाराँ की हवा से फिर हरा सा हो गया