वो जिस को मैं समझता रहा कामयाब दिन
वो दिन था मेरी उम्र का सब से ख़राब दिन
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उस को भी तो जा कर देखो उस का हाल भी मुझ सा है
कल्पना
डराए गए शहरों के बातिन
मुझ से बहुत क़रीब है तू फिर भी ऐ 'मुनीर'
जुर्म आदम ने किया और नस्ल-ए-आदम को सज़ा
अब किसी में अगले वक़्तों की वफ़ा बाक़ी नहीं
'मुनीर' इस मुल्क पर आसेब का साया है या क्या है
अपने घर को वापस जाओ रो रो कर समझाता है
सारे मंज़र एक जैसे सारी बातें एक सी
तिलिस्मात
शहर की गलियों में गहरी तीरगी गिर्यां रही
ख़्वाब-ओ-ख़याल-ए-गुल से किधर जाए आदमी