बैठ कर मैं लिख गया हूँ दर्द-ए-दिल का माजरा
ख़ून की इक बूँद काग़ज़ को रंगीला कर गई
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ख़्वाब-ओ-ख़याल-ए-गुल से किधर जाए आदमी
तुझ से बिछड़ कर क्या हूँ मैं अब बाहर आ कर देख
दुश्मनों के दरमियान शाम
मैं तो 'मुनीर' आईने में ख़ुद को तक कर हैरान हुआ
ज़िंदा रहें तो क्या है जो मर जाएँ हम तो क्या
दिल ख़ौफ़ में है आलम-ए-फ़ानी को देख कर
दिल को हाल-ए-क़रार में देखा
दिल का सफ़र बस एक ही मंज़िल पे बस नहीं
रंगों की वहशतों का तमाशा थी बाम-ए-शाम
जब सफ़र से लौट कर आए तो कितना दुख हुआ
मकाँ है क़ब्र जिसे लोग ख़ुद बनाते हैं
मेरी सारी ज़िंदगी को बे-समर उस ने किया