बहुत ही सुस्त था मंज़र लहू के रंग लाने का
निशाँ आख़िर हुआ ये सुर्ख़-तर आहिस्ता आहिस्ता
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रंगों की वहशतों का तमाशा थी बाम-ए-शाम
पूछते हैं कि क्या हुआ दिल को
इक आलम-ए-हिज्राँ ही अब हम को पसंद आया
दिल का सफ़र बस एक ही मंज़िल पे बस नहीं
पहली बात ही आख़िरी थी
छै रंगीं दरवाज़े
है 'मुनीर' हैरत-ए-मुस्तक़िल
ऐसा सफ़र है जिस की कोई इंतिहा नहीं
इतने ख़ामोश भी रहा न करो
घटा देख कर ख़ुश हुईं लड़कियाँ
आइना अब जुदा नहीं करता