है 'मुनीर' हैरत-ए-मुस्तक़िल
मैं खड़ा हूँ ऐसे मक़ाम पर
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इक और घर भी था मिरा
दिल ख़ौफ़ में है आलम-ए-फ़ानी को देख कर
थी जिस की जुस्तुजू वो हक़ीक़त नहीं मिली
इक और दरिया का सामना था 'मुनीर' मुझ को
रहना था उस के साथ बहुत देर तक मगर
छै रंगीं दरवाज़े
क़बा-ए-ज़र्द पहन कर वो बज़्म में आया
फूल थे बादल भी था और वो हसीं सूरत भी थी
इक मसाफ़त पाँव शल करती हुई सी ख़्वाब में
अपनी ही तेग़-ए-अदा से आप घायल हो गया
डर के किसी से छुप जाता है जैसे साँप ख़ज़ाने में
एक लड़की