रहना था उस के साथ बहुत देर तक मगर
इन रोज़ ओ शब में मुझ को ये फ़ुर्सत नहीं मिली
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दिल को हाल-ए-क़रार में देखा
इशारे
एक मैं और इतने लाखों सिलसिलों के सामने
'मुनीर' इस ख़ूबसूरत ज़िंदगी को
दश्त-ए-बाराँ की हवा से फिर हरा सा हो गया
बहुत ही सुस्त था मंज़र लहू के रंग लाने का
इन लोगों से ख़्वाबों में मिलना ही अच्छा रहता है
दिल की ख़लिश तो साथ रहेगी तमाम उम्र
कुछ दिन के बा'द उस से जुदा हो गए 'मुनीर'
मैं उस को देख के चुप था उसी की शादी में
मकान-ए-ज़र लब-ए-गोया हद-ए-सिपेह्र-ओ-ज़मीं
ये सफ़र मालूम का मा'लूम तक है ऐ 'मुनीर'