'मुनीर' इस ख़ूबसूरत ज़िंदगी को
हमेशा एक सा होना नहीं है
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मुझ से बहुत क़रीब है तू फिर भी ऐ 'मुनीर'
डराए गए शहरों के बातिन
तिलिस्मात
हमेशा देर कर देता हूँ
साअत-ए-हिज्राँ है अब कैसे जहानों में रहूँ
किसी को अपने अमल का हिसाब क्या देते
कल मैं ने उस को देखा तो देखा नहीं गया
सुब्ह-ए-काज़िब की हवा में दर्द था कितना 'मुनीर'
दुश्मनों के दरमियान शाम
इक तेज़ तीर था कि लगा और निकल गया
है शक्ल तेरी गुलाब जैसी
तुझ से बिछड़ कर क्या हूँ मैं अब बाहर आ कर देख