सुब्ह-ए-काज़िब की हवा में दर्द था कितना 'मुनीर'
रेल की सीटी बजी तो दिल लहू से भर गया
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मिसाल-ए-संग खड़ा है उसी हसीं की तरह
है 'मुनीर' हैरत-ए-मुस्तक़िल
वो जो मेरे पास से हो कर किसी के घर गया
जो मुझे भुला देंगे मैं उन्हें भुला दूँगा
तेज़ थी इतनी कि सारा शहर सूना कर गई
मैं ख़ुश नहीं हूँ बहुत दूर उस से होने पर
मैं और बादल
मेरी सारी ज़िंदगी को बे-समर उस ने किया
मैं हूँ भी और नहीं भी अजीब बात है ये
मैं तो 'मुनीर' आईने में ख़ुद को तक कर हैरान हुआ
मैं बहुत कमज़ोर था इस मुल्क में हिजरत के बाद
क्यूँ 'मुनीर' अपनी तबाही का ये कैसा शिकवा