इक और दरिया का सामना था 'मुनीर' मुझ को
मैं एक दरिया के पार उतरा तो मैं ने देखा
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दिल अजब मुश्किल में है अब अस्ल रस्ते की तरफ़
इम्तिहाँ हम ने दिए इस दार-ए-फ़ानी में बहुत
गुज़रगाह पर तमाशा
इतने ख़ामोश भी रहा न करो
मोहब्बत अब नहीं होगी ये कुछ दिन ब'अद में होगी
ज़वाल-ए-अस्र है कूफ़े में और गदागर हैं
पूछते हैं कि क्या हुआ दिल को
ज़िंदा लोगों की बूद-ओ-बाश में हैं
ख़ुमार-ए-शब में उसे मैं सलाम कर बैठा
कोई हद नहीं है कमाल की
दिन अगर चढ़ता उधर से मैं इधर से जागता
ख़याल जिस का था मुझे ख़याल में मिला मुझे