ज़वाल-ए-अस्र है कूफ़े में और गदागर हैं
खुला नहीं कोई दर बाब-ए-इल्तिजा के सिवा
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पी ली तो कुछ पता न चला वो सुरूर था
थके लोगों को मजबूरी में चलते देख लेता हूँ
बेचैन बहुत फिरना घबराए हुए रहना
शहर की गलियों में गहरी तीरगी गिर्यां रही
बे-हक़ीक़त दूरियों की दास्ताँ होती गई
आई है अब याद क्या रात इक बीते साल की
अपने घर को वापस जाओ रो रो कर समझाता है
अब मैं उसे याद बना देना चाहता हूँ
मैं तो 'मुनीर' आईने में ख़ुद को तक कर हैरान हुआ
थकन से राह में चलना मुहाल भी है मुझे
जो देखे थे जादू तिरे हात के
आवाज़ दे के देख लो शायद वो मिल ही जाए