क़बा-ए-ज़र्द पहन कर वो बज़्म में आया
गुल-ए-हिना को हथेली में थाम कर बैठा
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ये कैसा नश्शा है मैं किस अजब ख़ुमार में हूँ
बे-हक़ीक़त दूरियों की दास्ताँ होती गई
इक तेज़ तीर था कि लगा और निकल गया
बेगानगी का अब्र-ए-गिराँ-बार खुल गया
बेबसी
इम्तिहाँ हम ने दिए इस दार-ए-फ़ानी में बहुत
पी ली तो कुछ पता न चला वो सुरूर था
आँखों में उड़ रही है लुटी महफ़िलों की धूल
देती नहीं अमाँ जो ज़मीं आसमाँ तो है
कोई ओझल दुनिया है
और हैं कितनी मंज़िलें बाक़ी
है उस गुल-रंग का दीवार होना