अपनी ही तेग़-ए-अदा से आप घायल हो गया
चाँद ने पानी में देखा और पागल हो गया
Rahat Indori
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खड़ा हूँ ज़ेर-ए-फ़लक गुम्बद-ए-सदा में 'मुनीर'
शब-ए-विसाल में दूरी का ख़्वाब क्यूँ आया
वक़्त किस तेज़ी से गुज़रा रोज़-मर्रा में 'मुनीर'
इक आलम-ए-हिज्राँ ही अब हम को पसंद आया
लाई है अब उड़ा के गए मौसमों की बास
दिल अजब मुश्किल में है अब अस्ल रस्ते की तरफ़
तिलिस्मात
'मुनीर' इस मुल्क पर आसेब का साया है या क्या है
एक वारिस हमेशा होता है
जफ़ाएँ दूर तक जाती हैं कम आबाद शहरों में
तू
रात इक उजड़े मकाँ पर जा के जब आवाज़ दी