बड़ी मुश्किल से ये जाना कि हिज्र-ए-यार में रहना
बहुत मुश्किल है पर आख़िर में आसानी बहुत है
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मैं तो 'मुनीर' आईने में ख़ुद को तक कर हैरान हुआ
वक़्त किस तेज़ी से गुज़रा रोज़-मर्रा में 'मुनीर'
क़बा-ए-ज़र्द पहन कर वो बज़्म में आया
किसी को अपने अमल का हिसाब क्या देते
इक और दरिया का सामना था 'मुनीर' मुझ को
कोई ओझल दुनिया है
मोहब्बत अब नहीं होगी ये कुछ दिन ब'अद में होगी
डराए गए शहरों के बातिन
मैं और मेरा ख़ुदा
जानते थे दोनों हम उस को निभा सकते नहीं
गली के बाहर तमाम मंज़र बदल गए थे
बेगानगी का अब्र-ए-गिराँ-बार खुल गया