गली के बाहर तमाम मंज़र बदल गए थे
जो साया-ए-कू-ए-यार उतरा तो मैं ने देखा
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दिन भर जो सूरज के डर से गलियों में छुप रहते हैं
उठा तू जा भी चुका था अजीब मेहमाँ था
ख़लिश
छै रंगीं दरवाज़े
तू भी जैसे बदल सा जाता है
दश्त-ए-बाराँ की हवा से फिर हरा सा हो गया
जी ख़ुश हुआ है गिरते मकानों को देख कर
बे-हक़ीक़त दूरियों की दास्ताँ होती गई
रात की अज़िय्यत
मौत
'मुनीर' इस ख़ूबसूरत ज़िंदगी को
है उस गुल-रंग का दीवार होना