उठा तू जा भी चुका था अजीब मेहमाँ था
सदाएँ दे के मुझे नींद से जगा भी गया
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'मुनीर' इस ख़ूबसूरत ज़िंदगी को
सपना आगे जाता कैसे
मकान-ए-ज़र लब-ए-गोया हद-ए-सिपेह्र-ओ-ज़मीं
बैठ जाता है वो जब महफ़िल में आ के सामने
मैं
हम भी 'मुनीर' अब दुनिया-दारी कर के वक़्त गुज़ारेंगे
हर्फ़ सादा-ओ-रंगीं
कोई दाग़ है मिरे नाम पर
आइना अब जुदा नहीं करता
कोई ओझल दुनिया है
शहर की गलियों में गहरी तीरगी गिर्यां रही
ये अजनबी सी मंज़िलें और रफ़्तगाँ की याद