हम भी 'मुनीर' अब दुनिया-दारी कर के वक़्त गुज़ारेंगे
होते होते जीने के भी लाख बहाने आ जाते हैं
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चाँद निकला है सर-ए-क़र्या-ए-ज़ुल्मत देखो
मुद्दत के ब'अद आज उसे देख कर 'मुनीर'
डर के किसी से छुप जाता है जैसे साँप ख़ज़ाने में
बेचैन बहुत फिरना घबराए हुए रहना
मैं बहुत कमज़ोर था इस मुल्क में हिजरत के बाद
आख़िरी उम्र की बातें
कोई हद नहीं है कमाल की
छै रंगीं दरवाज़े
इक और घर भी था मिरा
अश्क-ए-रवाँ की नहर है और हम हैं दोस्तो
दिल को हाल-ए-क़रार में देखा
बे-हक़ीक़त दूरियों की दास्ताँ होती गई