वो मेरी आँखों पर झुक कर कहती है ''मैं हूँ''
उस का साँस मिरे होंटों को छू कर कहता है ''मैं हूँ''
सूनी दीवारों की ख़मोशी सरगोशी में कहती है ''मैं हूँ''
''हम घायल हैं'' सब कहते हैं
मैं भी कहता हूँ ''मैं हूँ''
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बड़ी मुश्किल से ये जाना कि हिज्र-ए-यार में रहना
ज़िंदा लोगों की बूद-ओ-बाश में हैं
तुझ से बिछड़ कर क्या हूँ मैं अब बाहर आ कर देख
इस शहर के यहीं कहीं होने का रंग है
लिए फिरा जो मुझे दर-ब-दर ज़माने में
दिल अजब मुश्किल में है अब अस्ल रस्ते की तरफ़
ख़्वाब होते हैं देखने के लिए
ख़ूब-सूरत ज़िंदगी को हम ने कैसे गुज़ारा
इक तेज़ तीर था कि लगा और निकल गया
चाहता हूँ मैं 'मुनीर' इस उम्र के अंजाम पर
आ गई याद शाम ढलते ही
इम्तिहाँ हम ने दिए इस दार-ए-फ़ानी में बहुत