लिए फिरा जो मुझे दर-ब-दर ज़माने में
ख़याल तुझ को दिल-ए-बे-क़रार किस का था
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ख़याल-ए-यकता में ख़्वाब इतने
आ गई याद शाम ढलते ही
वहम ये तुझ को अजब है ऐ जमाल-ए-कम-नुमा
किसी को अपने अमल का हिसाब क्या देते
देखने वाले की उलझन
बेचैन बहुत फिरना घबराए हुए रहना
थके लोगों को मजबूरी में चलते देख लेता हूँ
ज़िंदा लोगों की बूद-ओ-बाश में हैं
एक मैं और इतने लाखों सिलसिलों के सामने
मौत
अपने घर में
हुस्न में गुनाह की ख़्वाहिश