महक अजब सी हो गई पड़े पड़े संदूक़ में
रंगत फीकी पड़ गई रेशम के रूमाल की
Ahmad Faraz
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Jaun Eliya
Anwar Masood
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रहना था उस के साथ बहुत देर तक मगर
नशेब-ए-वहम फ़राज़-ए-गुरेज़-पा के लिए
ये अजनबी सी मंज़िलें और रफ़्तगाँ की याद
थके लोगों को मजबूरी में चलते देख लेता हूँ
मिसाल-ए-संग खड़ा है उसी हसीं की तरह
हक़ीक़त
अब कौन मुंतज़िर है हमारे लिए वहाँ
रात की अज़िय्यत
दिल को हाल-ए-क़रार में देखा
ग़ैर से नफ़अत जो पा ली ख़र्च ख़ुद पर हो गई
मैं, वो और रात
ख़लिश