हस्ती ही अपनी क्या है ज़माने के सामने
इक ख़्वाब हैं जहाँ में बिखर जाएँ हम तो क्या
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बैठ कर मैं लिख गया हूँ दर्द-ए-दिल का माजरा
ज़ोर पैदा जिस्म ओ जाँ की ना-तवानी से हुआ
कटी है जिस के ख़यालों में उम्र अपनी 'मुनीर'
विसाल की ख़्वाहिश
जफ़ाएँ दूर तक जाती हैं कम आबाद शहरों में
मकाँ में क़ैद-ए-सदा की दहशत
लिए फिरा जो मुझे दर-ब-दर ज़माने में
ख़ुश्बू की दीवार के पीछे कैसे कैसे रंग जमे हैं
किसी को अपने अमल का हिसाब क्या देते
छै रंगीं दरवाज़े
अब कौन मुंतज़िर है हमारे लिए वहाँ
गली के बाहर तमाम मंज़र बदल गए थे