है 'मुनीर' तेरी निगाह में
कोई बात गहरे मलाल की
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सपना आगे जाता कैसे
आइना अब जुदा नहीं करता
नई महफ़िल में पहली शनासाई
कितने यार हैं फिर भी 'मुनीर' इस आबादी में अकेला है
शायद कोई देखने वाला हो जाए हैरान
बाज़गश्त
किसी अकेली शाम की चुप में
ज़िंदा रहें तो क्या है जो मर जाएँ हम तो क्या
लाई है अब उड़ा के गए मौसमों की बास
मैं, वो और रात
ख़्वाब-ओ-ख़याल-ए-गुल से किधर जाए आदमी
डर के किसी से छुप जाता है जैसे साँप ख़ज़ाने में