किसी अकेली शाम की चुप में
गीत पुराने गा के देखो
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जब भी घर की छत पर जाएँ नाज़ दिखाने आ जाते हैं
कल्पना
जी ख़ुश हुआ है गिरते मकानों को देख कर
दिल की ख़लिश तो साथ रहेगी तमाम उम्र
इक तेज़ तीर था कि लगा और निकल गया
जफ़ाएँ दूर तक जाती हैं कम आबाद शहरों में
ये आँख क्यूँ है ये हाथ क्या है
सुन बस्तियों का हाल जो हद से गुज़र गईं
है 'मुनीर' हैरत-ए-मुस्तक़िल
रंगों की वहशतों का तमाशा थी बाम-ए-शाम
दुश्मनों के दरमियान शाम
तू भी जैसे बदल सा जाता है