ख़्वाहिशें हैं घर से बाहर दूर जाने की बहुत
शौक़ लेकिन दिल में वापस लौट कर आने का था
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किसी को अपने अमल का हिसाब क्या देते
सपना आगे जाता कैसे
'मुनीर' इस ख़ूबसूरत ज़िंदगी को
निगार-ख़ाना
तुझ से बिछड़ कर क्या हूँ मैं अब बाहर आ कर देख
वो जो मेरे पास से हो कर किसी के घर गया
दश्त-ए-बाराँ की हवा से फिर हरा सा हो गया
फूल थे बादल भी था और वो हसीं सूरत भी थी
कल्पना
हस्ती ही अपनी क्या है ज़माने के सामने
चाँद निकला है सर-ए-क़र्या-ए-ज़ुल्मत देखो
दिल का सफ़र बस एक ही मंज़िल पे बस नहीं