कितने यार हैं फिर भी 'मुनीर' इस आबादी में अकेला है
अपने ही ग़म के नश्शे से अपना जी बहलाता है
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चमन मैं रंग-ए-बहार उतरा तो मैं ने देखा
नई महफ़िल में पहली शनासाई
मैं बहुत कमज़ोर था इस मुल्क में हिजरत के बाद
इस शहर के यहीं कहीं होने का रंग है
ज़वाल-ए-अस्र है कूफ़े में और गदागर हैं
रौशनी दर रौशनी है उस तरफ़
हैं रवाँ उस राह पर जिस की कोई मंज़िल न हो
अभी मुझे इक दश्त-ए-सदा की वीरानी से गुज़रना है
शायद कोई देखने वाला हो जाए हैरान
डराए गए शहरों के बातिन
महक अजब सी हो गई पड़े पड़े संदूक़ में