ये सदा
ये सदा-ए-बाज़गश्त
बे-कराँ वुसअ'त की आवारा परी
सुस्त-रौ झीलों के पार
नम-ज़दा पेड़ों के फैले बाज़ुओं के आस-पास
एक ग़म-दीदा परिंद
गीत गाता है मिरी वीरान शामों के लिए
Mohsin Naqvi
Allama Iqbal
Habib Jalib
Mir Taqi Mir
Faiz Ahmad Faiz
Anwar Masood
Parveen Shakir
Javed Akhtar
Wasi Shah
Gulzar
Jaun Eliya
Rahat Indori
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साअत-ए-हिज्राँ है अब कैसे जहानों में रहूँ
जो देखे थे जादू तिरे हात के
छै रंगीं दरवाज़े
तू
उगा सब्ज़ा दर-ओ-दीवार पर आहिस्ता आहिस्ता
आख़िरी उम्र की बातें
वक़्त से कहियो ज़रा कम कम चले
मिरे पास ऐसा तिलिस्म है जो कई ज़मानों का इस्म है
है 'मुनीर' तेरी निगाह में
आदत ही बना ली है तुम ने तो 'मुनीर' अपनी
ख़ूब-सूरत ज़िंदगी को हम ने कैसे गुज़ारा
बे-ख़याली में यूँही बस इक इरादा कर लिया