आदत ही बना ली है तुम ने तो 'मुनीर' अपनी
जिस शहर में भी रहना उकताए हुए रहना
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ये सफ़र मालूम का मा'लूम तक है ऐ 'मुनीर'
रहना था उस के साथ बहुत देर तक मगर
मैं उस को देख के चुप था उसी की शादी में
लिए फिरा जो मुझे दर-ब-दर ज़माने में
ये मेरे गिर्द तमाशा है आँख खुलने तक
है 'मुनीर' तेरी निगाह में
जी ख़ुश हुआ है गिरते मकानों को देख कर
अब मैं उसे याद बना देना चाहता हूँ
रंज-ए-फ़िराक़-ए-यार में रुस्वा नहीं हुआ
रिदा उस चमन की उड़ा ले गई
ख़्वाब-ओ-ख़याल-ए-गुल से किधर जाए आदमी
एक नगर के नक़्श भुला दूँ एक नगर ईजाद करूँ