आ गई याद शाम ढलते ही
बुझ गया दिल चराग़ जलते ही
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ख़्वाब-ओ-ख़याल-ए-गुल से किधर जाए आदमी
मेरी सारी ज़िंदगी को बे-समर उस ने किया
उठा तू जा भी चुका था अजीब मेहमाँ था
नई महफ़िल में पहली शनासाई
नवाह-ए-वुसअत-ए-मैदाँ में हैरानी बहुत है
ग़ैर से नफ़अत जो पा ली ख़र्च ख़ुद पर हो गई
ये कैसा नश्शा है मैं किस अजब ख़ुमार में हूँ
वो खड़ा है एक बाब-ए-इल्म की दहलीज़ पर
ख़याल जिस का था मुझे ख़याल में मिला मुझे
मुद्दत के ब'अद आज उसे देख कर 'मुनीर'
हुस्न में गुनाह की ख़्वाहिश
शहर पर्बत बहर-ओ-बर को छोड़ता जाता हूँ मैं