वो खड़ा है एक बाब-ए-इल्म की दहलीज़ पर
मैं ये कहता हूँ उसे इस ख़ौफ़ में दाख़िल न हो
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चाँद निकला है सर-ए-क़र्या-ए-ज़ुल्मत देखो
इक तेज़ तीर था कि लगा और निकल गया
इशारे
बेचैन बहुत फिरना घबराए हुए रहना
बाज़गश्त
आ गई याद शाम ढलते ही
ये मेरे गिर्द तमाशा है आँख खुलने तक
दिन भर जो सूरज के डर से गलियों में छुप रहते हैं
दुश्मन की तरफ़ दोस्ती का हाथ
तूफ़ानी रात में इंतिज़ार
आख़िरी उम्र की बातें