मैं भी दिल के बहलाने को क्या क्या स्वाँग रचाता हूँ
सायों के झुरमुट में बैठा सुख की सेज सजाता हूँ
बुझते जलते दीपक से सपनों के चाँद बनाता हूँ
आप ही काली आँखें बन कर अपने सामने आता हूँ
आप ही दुख का भेस बदल कर उन को ढूँडने जाता हूँ
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सफ़र में है जो अज़ल से ये वो बला ही न हो
मेरी सारी ज़िंदगी को बे-समर उस ने किया
शाम के मस्कन में वीराँ मय-कदे का दर खुला
किसी को अपने अमल का हिसाब क्या देते
थकन से राह में चलना मुहाल भी है मुझे
बैठ जाता है वो जब महफ़िल में आ के सामने
बे-हक़ीक़त दूरियों की दास्ताँ होती गई
मुझ से बहुत क़रीब है तू फिर भी ऐ 'मुनीर'
डर के किसी से छुप जाता है जैसे साँप ख़ज़ाने में
आइना अब जुदा नहीं करता
रिदा उस चमन की उड़ा ले गई
महफ़िल-आरा थे मगर फिर कम-नुमा होते गए