शाम के मस्कन में वीराँ मय-कदे का दर खुला
शाम के मस्कन में वीराँ मय-कदे का दर खुला
बाब गुज़री सोहबतों का ख़्वाब के अंदर खुला
कुछ न था जुज़ ख़्वाब-ए-वहशत वो वफ़ा इस अहद की
राज़ इतनी देर का इस उम्र में आ कर खुला
बन में सरगोशी हुई आसार-ए-अब्र-ओ-बाद से
बंद-ए-ग़म से जैसे इक अश्जार का लश्कर खुला
जगमगा उट्ठा अँधेरे में मिरी आहट से वो
ये अजब उस बुत का मेरी आँख पर जौहर खुला
सब्ज़ा-ए-नौ-रस्ता की ख़ुशबू थी साहिल पर 'मुनीर'
बादलों का रंग छतरी की तरह सर पर खुला
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