ये नमाज़-ए-अस्र का वक़्त है
ये घड़ी है दिन के ज़वाल की
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अपने घर में
रौशनी दर रौशनी है उस तरफ़
शब-ए-विसाल में दूरी का ख़्वाब क्यूँ आया
सुब्ह-ए-काज़िब की हवा में दर्द था कितना 'मुनीर'
सहन को चमका गई बेलों को गीला कर गई
दिल अजब मुश्किल में है अब अस्ल रस्ते की तरफ़
क्यूँ 'मुनीर' अपनी तबाही का ये कैसा शिकवा
थी जिस की जुस्तुजू वो हक़ीक़त नहीं मिली
मैं और मेरा ख़ुदा
वो जो मेरे पास से हो कर किसी के घर गया
कुछ वक़्त चाहते थे कि सोचें तिरे लिए
इम्तिहाँ हम ने दिए इस दार-ए-फ़ानी में बहुत