ऐसा सफ़र है जिस की कोई इंतिहा नहीं
ऐसा मकाँ है जिस में कोई हम-नफ़स नहीं
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बैठ जाता है वो जब महफ़िल में आ के सामने
था 'मुनीर' आग़ाज़ ही से रास्ता अपना ग़लत
मोहब्बत अब नहीं होगी
तुम मेरे लिए इतने परेशान से क्यूँ हो
सारे मंज़र एक जैसे सारी बातें एक सी
है 'मुनीर' तेरी निगाह में
पूछते हैं कि क्या हुआ दिल को
ख़्वाब होते हैं देखने के लिए
शब-ख़ूँ
जफ़ाएँ दूर तक जाती हैं कम आबाद शहरों में
जो देखे थे जादू तिरे हात के
इस शहर के यहीं कहीं होने का रंग है