तन्हा उजाड़ बुर्जों में फिरता है तू 'मुनीर'
वो ज़र-फ़िशानियाँ तिरे रुख़ की किधर गईं
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उगा सब्ज़ा दर-ओ-दीवार पर आहिस्ता आहिस्ता
ख़याल जिस का था मुझे ख़याल में मिला मुझे
इम्तिहाँ हम ने दिए इस दार-ए-फ़ानी में बहुत
वो जिस को मैं समझता रहा कामयाब दिन
मोहब्बत अब नहीं होगी
तू भी जैसे बदल सा जाता है
है 'मुनीर' तेरी निगाह में
डराए गए शहरों के बातिन
मेरी सारी ज़िंदगी को बे-समर उस ने किया
इक आलम-ए-हिज्राँ ही अब हम को पसंद आया
मौसम-ए-सरमा की बारिश का ये पहला रोज़ है
दुश्मनों के दरमियान शाम