कितने सूरज डूबे
कितने मौसम बीते
साँसें जोड़ें धागे की सूरत में
आँखें फोड़ें
इक झोली को सीते सीते
तेरी गली में आया
तेरा घर ऊँचा था
तू ने भी मेरी झोली में
इक खोटा सिक्का फेंका था
Faiz Ahmad Faiz
Ahmad Faraz
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Gulzar
Jaun Eliya
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अश्कों से ब-रंग-ए-आब हम ने
दुख की आँखें नीली हैं
अब किसी को देख कर इक सम्त मुड़ जाते हैं हम
अजनबी
किस दश्त-ए-तलब में खो गए हम
कभी हँस रहा था कभी गा रहा था
मैं अगर चुप हूँ ये बहता हुआ दरिया क्या है
तजरबा-गाह
रात ख़्वाबों ने परेशाँ कर दिया
अपनी ही आवारगी से डर गए
इक ख़्वाब थी ज़िंदगी हमारी
मेरी दुनिया