दिन भर लोग मिरे
कपड़ों से मिलते हैं
मेरी टोपी से
हाथ मिला कर हँसते हैं
मेरे जूते पहन के मेरी
साँसों पर चलते हैं
अपने आप से कब बिछड़ा था
दिन के इस अम्बोह में मुझ को
कुछ भी याद नहीं आता
रात को अपने नंगे जिस्म के
बिस्तर पर
नींद नहीं आती
Faiz Ahmad Faiz
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कहानियाँ तमाम शब
कोई बीमार पड़ जाए तो अच्छा कैसे करते हो
अश्कों से ब-रंग-ए-आब हम ने
वक़्त को किस ने रोका है
जाने किस लिए रूठी ऐसे ज़िंदगी हम से
आती जाती साँस कैसे तेरे ग़म से मन गई
मैं ये चाहता हूँ
दुख की आँखें नीली हैं
इक ख़्वाब थी ज़िंदगी हमारी
अजनबी
तिफ़्ल-ए-आरज़ू
निश्तरों पर जिस्म सारा रख दिया