जब मैं अपने अंदर झाँक रहा था
एक कुआँ था
डोल मैं उस में डाल रहा था
इक रस्सी साँसों की
मेरे अश्कों में भीगी
ऊपर नीचे आती जाती
मैं उस को बाहर
वो मुझ को अंदर खींच रहा था!
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हम थे किसी का ध्यान था वो भी नहीं रहा
हम तिरा साया थे साया हो के
जाने किस लिए रूठी ऐसे ज़िंदगी हम से
मुराजअत
कही अन-कही
सदा ज़-फ़ैज़-ए-असर ख़ामुशी न बन जाए
जो बीती है जो बीतेगी सब अफ़्साने लगे हम को
एक ग़म है उसे अपना जानें
अपनी ही आवारगी से डर गए
किस दश्त-ए-तलब में खो गए हम
मैं ये चाहता हूँ
ज़िक्र तेरा करेंगे फिर तुझ से