न जाने कौन सा रिश्ता है मुझ से नाता है
न जाने कौन सा रिश्ता है मुझ से नाता है
मिरी ग़ज़ल को वो तन्हाइयों में गाता है
दरीचे मैं ने मुक़फ़्फ़ल तो कर लिए लेकिन
वो ख़ुशबुओं की तरह घर में आता जाता है
मैं उस के वास्ते मुश्किल सा इक सबक़ ठहरा
वो मुझ को याद तो करता है भूल जाता है
वो एक लम्स कि अब तक न भूल पाया मैं
न जाने कैसे किसी को कोई भुलाता है
'नसीम' जिस से तअ'ल्लुक़ था चंद लम्हों का
वो बन के याद-ए-गुज़िश्ता मुझे सताता है
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