अब तक हमारी उम्र का बचपन नहीं गया
घर से चले थे जेब के पैसे गिरा दिए
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मुसाफ़िर ख़ाना-ए-इम्काँ में बिस्तर छोड़ जाते थे
आगे पहुँचा जल का धारा बजरा पीछे छूट गया
क्या ख़बर है न मिले फिर कोई शीशा ऐसा
सहरा का पता दे न समुंदर का पता दे
बिछड़ कर उस से सीखा है तसव्वुर को बदन करना
तेज़-रौ पानी की तीखी धार पर बहते हुए
धज्जी धज्जी जुब्बा-ओ-दस्तार होते देखना
तामीर हम ने की थी हमीं ने गिरा दिए
ये दश्त-ओ-दमन कोह ओ कमर किस के लिए है
पेशानी-ए-हयात पे कुछ ऐसे बल पड़े
धड़का था दिल कि प्यार का मौसम गुज़र गया
पुर्सिश-ए-हाल से ग़म और न बढ़ जाए कहीं