बिछड़ कर उस से सीखा है तसव्वुर को बदन करना
अकेले में उसे छूना अकेले में सुख़न करना
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पेशानी-ए-हयात पे कुछ ऐसे बल पड़े
कभी तो मुल्तवी ज़िक्र-ए-जहाँ-गर्दां भी होना था
क्या ख़बर है न मिले फिर कोई शीशा ऐसा
बहुत क़रीब है पत-झड़ की रुत पलक न उठा
धज्जी धज्जी जुब्बा-ओ-दस्तार होते देखना
न मिल सका कहीं ढूँडे से भी निशान मिरा
ये दश्त-ओ-दमन कोह ओ कमर किस के लिए है
सुरमई धूप में दिन सा नहीं होने पाता
चुप थे बरगद ख़ुश्क मौसम का गिला करते न थे
अब तक हमारी उम्र का बचपन नहीं गया
रुख़ बदलते हिचकिचाते थे कि डर ऐसा भी था