मिरी क़ीमत को सुनते हैं तो गाहक लौट जाते हैं
बहुत कमयाब हो जो शय वो होती है गिराँ अक्सर
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बिछड़ कर उस से सीखा है तसव्वुर को बदन करना
रुख़ बदलते हिचकिचाते थे कि डर ऐसा भी था
कभी तो मुल्तवी ज़िक्र-ए-जहाँ-गर्दां भी होना था
देखा नहीं देखे हुए मंज़र के सिवा कुछ
सहरा का पता दे न समुंदर का पता दे
चुप थे बरगद ख़ुश्क मौसम का गिला करते न थे
क्या ख़बर है न मिले फिर कोई शीशा ऐसा
छा गया सर पे मिरे गर्द का धुँदला बादल
आप अपनी ज़ात में सिमटा हुआ आलम तमाम
पेशानी-ए-हयात पे कुछ ऐसे बल पड़े
न मिल सका कहीं ढूँडे से भी निशान मिरा
धड़का था दिल कि प्यार का मौसम गुज़र गया