तुम्हारे हिज्र में आँखें हमारी मुद्दत से
नहीं ये जानतीं दुनिया में ख़्वाब है क्या चीज़
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मैं हूँ पतंग-ए-काग़ज़ी डोर है उस के हाथ में
तोड़े हैं बहुत शीशा-ए-दिल जिस ने 'नज़ीर' आह
अब तो ज़रा सा गाँव भी बेटी न दे उसे
तर रखियो सदा या-रब तू इस मिज़ा-ए-तर को
तन पर उस के सीम फ़िदा और मुँह पर मह दीवाना है
तुझे कुछ भी ख़ुदा का तर्स है ऐ संग-दिल तरसा
जब आँख उस सनम से लड़ी तब ख़बर पड़ी
देख अक़्द-ए-सुरय्या हमें अंगूर की सूझी
देख ले जो आलम उस के हुस्न-ए-बाला-दस्त का
क्या दिन थे वो जो वाँ करम-ए-दिल-बराना था
उस बेवफ़ा ने हम को अगर अपने इश्क़ में
दिल हर घड़ी कहता है यूँ जिस तौर से अब हो सके