तोड़े हैं बहुत शीशा-ए-दिल जिस ने 'नज़ीर' आह
फिर चर्ख़ वही गुम्बद-ए-मीनाई है कम-बख़्त
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'नज़ीर' अब इस नदामत से कहूँ क्या
अय्याम-ए-शबाब अपने भी क्या ऐश-असर थे
जाँ भी ब-जाँ है हिज्र में और दिल फ़िगार भी
गुलज़ार है दाग़ों से यहाँ तन-बदन अपना
मय भी है मीना भी है साग़र भी है साक़ी नहीं
दोस्तो क्या क्या दिवाली में नशात-ओ-ऐश है
ग़श खा के गिरा पहले ही शोले की झलक से
ज़ाहिदो रौज़ा-ए-रिज़वाँ से कहो इश्क़ अल्लाह
क्या अदा किया नाज़ है क्या आन है
दिल यार की गली में कर आराम रह गया
ज़माने के हाथों से चारा नहीं है
मुंतज़िर उस के दिला ता-ब-कुजा बैठना