मय भी है मीना भी है साग़र भी है साक़ी नहीं
दिल में आता है लगा दें आग मय-ख़ाने को हम
Wasi Shah
Allama Iqbal
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Habib Jalib
Faiz Ahmad Faiz
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Jaun Eliya
Gulzar
Mir Taqi Mir
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है अब तो वो हमें उस सर्व-ए-सीम-बर की तलब
अल्ताफ़ बयाँ हों कब हम से ऐ जान तुम्हारी सूरत के
उस शोख़ को हम ने जिस घड़ी जा देखा
मिरा ख़त है जहाँ यारो वो रश्क-ए-हूर ले जाना
अजब मुश्किल है क्या कहिए बग़ैर-अज़-जान देने के
जा पड़े चुप हो के जब शहर-ए-ख़मोशाँ में 'नज़ीर'
ले के दिल मेहर से फिर रस्म-ए-जफ़ा-कारी क्या
बाग़ में लगता नहीं सहरा में घबराता है दिल
मज़मून-ए-सर्द-मेहरी-ए-जानाँ रक़म करूँ
सर-चश्मा-ए-बक़ा से हरगिज़ न आब लाओ
सहर हम ने चमन-अंदर अजब देखा कल इक दिलबर
कौन याँ साथ लिए ताज-ओ-सरीर आया है