जा पड़े चुप हो के जब शहर-ए-ख़मोशाँ में 'नज़ीर'
ये ग़ज़ल ये रेख़्ता ये शेर-ख़्वानी फिर कहाँ
Ahmad Faraz
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गो सफ़ेदी मू की यूँ रौशन है जूँ आब-ए-हयात
हम वो दरख़्त हैं कि जिसे दम-ब-दम अजल
फिर इस तरफ़ वो परी-रू झमकता आता है
मुँह से पर्दा न उठे साहब-ए-मन याद रहे
महबूब ने पैरहन में जब इत्र मला
शहर में लगता नहीं सहरा से घबराता है दिल
खोली जो टुक ऐ हम-नशीं उस दिल-रुबा की ज़ुल्फ़ कल
मज़मून-ए-सर्द-मेहरी-ए-जानाँ रक़म करूँ
दोस्तो क्या क्या दिवाली में नशात-ओ-ऐश है
होली
याँ तो कुछ अपनी ख़ुशी से नहीं हम आए हुए
तिरे मरीज़ को ऐ जाँ शिफ़ा से क्या मतलब