शहर में लगता नहीं सहरा से घबराता है दिल
अब कहाँ ले जा के बैठें ऐसे दीवाने को हम
Anwar Masood
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याँ तो कुछ अपनी ख़ुशी से नहीं हम आए हुए
ख़ुशामद
दिल ठहरा एक तबस्सुम पर कुछ और बहा ऐ जान नहीं
पुकारा क़ासिद-ए-अश्क आज फ़ौज-ए-ग़म के हाथों से
धुआँ कलेजे से मेरे निकला जला जो दिल बस कि रश्क खा कर
देख उसे रंग-ए-बहार ओ सर्व ओ गुल और जूएबार
मानी ने जो देखा तिरी तस्वीर का नक़्शा
झोंपड़ा
यूँ तो हम कुछ न थे पर मिस्ल-ए-अनार-ओ-महताब
सहर जो निकला मैं अपने घर से तो देखा इक शोख़ हुस्न वाला
रंज-ए-दिल यूँ गया रुख़ उस का देख
'नज़ीर' अब इस नदामत से कहूँ क्या