मैं हूँ पतंग-ए-काग़ज़ी डोर है उस के हाथ में
चाहा इधर घटा दिया चाहा उधर बढ़ा दिया
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बे-ज़री फ़ाक़ा-कशी मुफ़्लिसी बे-सामानी
दिखा कर इक नज़र दिल को निहायत कर गया बेकल
पस उस के गए सिपर जो हम कर सीना
नामा-ए-यार जो सहर पहुँचा
कल शब-ए-वस्ल में क्या जल्द बजी थीं घड़ियाँ
क्या अदा किया नाज़ है क्या आन है
हँसे रोए फिरे रुस्वा हुए जागे बंधे छूटे
ख़याल-ए-यार सदा चश्म-ए-नम के साथ रहा
पुकारा क़ासिद-ए-अश्क आज फ़ौज-ए-ग़म के हाथों से
ऐ दिल अपनी तू चाह पर मत फूल
कल मिरे क़त्ल को इस ढब से वो बाँका निकला
तर रखियो सदा या-रब तू इस मिज़ा-ए-तर को