कल शब-ए-वस्ल में क्या जल्द बजी थीं घड़ियाँ
आज क्या मर गए घड़ियाल बजाने वाले
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मिरा दिल है मुश्ताक़ उस गुल-बदन का
'नज़ीर' तेरी इशारतों से ये बातें ग़ैरों की सुन रहा है
आरज़ू ख़ूब है मौक़ा से अगर हो वर्ना
मुँह ज़र्द ओ आह-ए-सर्द ओ लब-ए-ख़ुश्क ओ चश्म-ए-तर
उसी का देखना है ढानता दिल
जाम न रख साक़िया शब है पड़ी और भी
इश्क़ का दूर करे दिल से जो धड़का तावीज़
बज़्म-ए-तरब वक़्त-ए-ऐश साक़ी ओ नक़्ल ओ शराब
न आया आज भी सब खेल अपना मिट्टी है
ग़श खा के गिरा पहले ही शोले की झलक से
ठहरना इश्क़ के आफ़ात के सदमों में 'नज़ीर'
रुत्बा कुछ आशिक़ी में न कम है फ़क़ीर का