आरज़ू ख़ूब है मौक़ा से अगर हो वर्ना
अपने मक़्सूद को कम पहुँचे हैं बिसयार-तलब
Mohsin Naqvi
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Wasi Shah
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Habib Jalib
Gulzar
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हुई शक्ल अपनी ये हम-नशीं जो सनम को हम से हिजाब है
पस उस के गए सिपर जो हम कर सीना
जो दिल को दीजे तो दिल में ख़ुश हो करे है किस किस तरह से हलचल
कहते हैं जिस को 'नज़ीर' सुनिए टुक उस का बयाँ
लिपट लिपट के मैं उस गुल के साथ सोता था
आदमी-नामा
ज़ाहिदो रौज़ा-ए-रिज़वाँ से कहो इश्क़ अल्लाह
यक-ब-यक होगी सियाही इस क़दर जाती रही
बहार
अव्वलन उस बे-निशाँ और बा-निशाँ को इश्क़ है
नहीं हवा में ये बू नाफ़ा-ए-ख़ुतन की सी
उधर उस की निगह का नाज़ से आ कर पलट जाना